गुरुवार, 27 मार्च 2014

डर लगता है

हमें भगवान से अधिक, इन्सान से डर लगता है |
कब जीवन में क्या वसूल ले, उसके अहसान से डर लगता है |
कभी पहनाया था हमें ताज,
अब तो उसके दिए मान सम्मान से डर लगता है |

चेहरे पर लगा कर चेहरा वे बांधते है जब सेहरा,
उनकी पहचान से डर लगता है |
बेकारी बेरोजगारी की महामारी से भरे इस जीवन में |
कैसे जुटायेंगे जीने के सामान बड़ा डर लगता है ||

घर बाहर हो रहा है कितना बबाल अब तो,अपने दालान से भी डर लगता है |
जिनकी कथनी और करनी में होता है अंतर |
राजनीती की जो बिछाते है सदा बिसात |
उनकी जहरीली मुस्कान से डर लगता है |

डर डर कर जी रहे है जीवन में हम |
अब तो सार्वजनिक सम्मान से डर लगता है |
सोचा था छू लेंगे ऊँची चोटियों को जीवन में ,
अब तो पहाड़ों की ढलान से डर लगता है ||

ऐसी ही बीती डर-डर कर अंधेरे सायों में,
अब तो उजालों की कायनात से डर लगता है |
चाहों के भावों को समेत लिया अपने तक,
क्योंकि अब कविता करने से भी डर लगता है |

२००७  में प्रकाशित 'सप्तपदी' कविता संग्रह में से

3 टिप्‍पणियां :

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (30-03-2014) को "कितने एहसास, कितने ख़याल": चर्चा मंच: चर्चा अंक 1567 में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    अभिलेख द्विवेदी

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  2. चर्चामंच के व्यवस्थापको का बहुत बहुत धन्यवाद |

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