गुरुवार, 20 मार्च 2014

कील

मेरे पैर में एक कील चुभी थी |
वह मुझे सालती रही जीवन भर |
मैं उसे सहेजती रही पालती रही |
वह कील मुझे अपने ही रंग में ढालती रही |
पर जब उसने मुझे और मेरे मन को कर दिया लहुलुहान |
तब मैंने उसे उखाड़ कर फ़ेंक दिया समझ बेकार समान ||

मैंने ठीक किया या गलत मैं नहीं जानती |
झूठे रीति रिवाजों तथा दकियानूसी विचारो को मैं नहीं मानती |
आज मेरे जैसी न जाने कितनी कील की चुभन सह रही है |
कुछ तो न जीती है न मरती है न देहरी ही पार करती है ||

मैं यह भी नहीं जानती कि कीलों को उखाड़कर |
फैंकने वाली दुखी है या सुखी |
कुछ ऐसी भी है जो पैरों में कील चुभने नहीं देती |
अगर चुभ भी जाती है तो उसे उखाड़ कर दूर फ़ेंक आती है ||

पर जो कील अंदर तक गढ़ जाती है |
वह जीवन भर बड़ा सताती है |
जब वह अपने नुकीले पंख फैलाती है |
तो चाहने पर भी उखड़ नहीं पाती है ||

आज भी बहुतों के पैरों में कीलें चुभी होंगी |
उन्होंने भी वह अनचाहा दर्द सहा होगा |
दुनियाँ में कील चुभाने वालों की कमी नहीं रही |
सहने वालों की किस्मत में तो गमी ही गमी रही ||

२०१० में प्रकाशित 'नारी' कविता संग्रह में से

3 टिप्‍पणियां :

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (21.03.2014) को "उपवन लगे रिझाने" (चर्चा अंक-1558)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें, वहाँ आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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