मैं तुम्हारे आँगन में आई थी |
मन में कुछ अरमान संजोये थे |
नव जीवन के उमंग भरे सपने पिरोये थे |
अपने भी तुम्हारे ही लिए खोये थे ||
वर्षो तक सब कुछ सहती रही |
तोते की तरह रटती रही |
सब करती रही जो तुमने कराया था |
कहती रही जो तुमने कहलवाया था ||
मैंने इसी उलझन में वर्षो बिताये है |
अब सोचने के अंतिम पड़ाव आये है |
मैंने अब जीवन की सीढ़ी को पार किया है |
बुद्धि व विवेक को साथ लिया है ||
मैंने 'क' से कबूतर को छोड़ कम्पूटर बोलना शुरू किया है |
'ख' से खम्बा व खरबूजा तो बहुत बार बोला है |
अब मैं खेत खलियान व खदान की भाषा बोलूँगी |
कहने से पूर्व बात को तोलूंगी ||
मैंने अपने आँगन में 'ग' से गमला भी लगाया है |
मन के रंगीन सपनों से अपना आँगन भी सजाया है |
गमले में खिले फूलों की खुश्बू अब चारों और फैली है |
आते जाते सभी पूछते है यह कौन सी लाता बेली है ?
'ग' से अब मैंने गीता रहस्य समझाया है |
गिरजे में जाकर दीप भी जलाया है |
गंगा में डुबकी लगाकर गुरूद्वारे में शीश झुकाया है |
गीता , गंगा, गिरजा और गुरूद्वारे का सबको अर्थ समझाया है ||
अब तक तुम्हारे आँगन में 'ख' से खम्बे के पीछे ही तो खड़ी थी |
पुरानी रस्मों रीति-रिवाजों व संस्कारों से जुड़ी थी |
अब मैंने मन का आँगन पार किया है |
नई पीढ़ी के नए विचारों ने मेरा साथ दिया है ||
लोग कहते हैं मैंने परम्परायें तोड़ी हैं |
वे नहीं जानते कि मैंने संकीर्णता भी छोड़ी हैं |
अब मैं नई पौधों के नए विचारों के साथ खड़ी हूँ |
नई उमंग उत्साह व नव कल्पनाओं से जुड़ी हूँ ||
तुम तो अभी भी दरवाजे पर खड़े हो |
अपनी ही बात पर अड़े हो |
आँगन में तुमने तो लकीर खींची थी |
वह अब तक मैंने अपने अरमानों से सींची थी ||
तुम तो अभी भी दरवाजे पर खड़े हो |
अपनी ही बात पर अड़े हो |
आँगन में तुमने तो लकीर खींची थी |
वह अब तक मैंने अपने अरमानों से सींची थी ||
अब मैंने तुम्हारा आँगन पार करके बुद्धि का दरवाजा खटखटाया है |
दिल का सहारा लेकर अपने आपको समझाया है |
कुछ दिन अपना जीवन अपने लिए भी जी लूं |
मेरी चाहत ने मुझसे फ़रमाया है ||
अब मैं अपनी शर्तो पर जी रही हूँ |
अपने मन के आंगन को अपने अनुसार सींच रही हूँ |
लोग पूछते हैं कौन सी मणि पाई है |
मैं कहती हूँ मुझे जीवन जीने की कला आई है ||
२०१० में प्रकाशित 'नारी' कविता संग्रह में से
२०१० में प्रकाशित 'नारी' कविता संग्रह में से
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