बुधवार, 4 जून 2014

प्राकृतिक प्रकोप



प्रकृति का यह दैवीय प्रकोप
कभी अनावृष्टि कभी अतिवृष्टि का संयोग
मानव को भी झेलना पड़ता है यह सब
यही तो लिखा है उसके भाग्य में सब |


हम सब प्रकृति पर ही तो निर्भर है
झर झर झरने बहते निर्झर है
लेकिन मानव जब गुरता दिखाता है
तब नियति अपना उग्र रूप धारण करती है |

यही मानव आपदा से हार जाता है
यद्यपि प्रकृति से उसका निकट का नाता है
तभी बड़ी बड़ी नदियों पर बांध बनाता है
उसने अपने नाकाम इरादो को साधा है |

आज नदियों के भयंकर उफान देख कर
मानव क्यों घबराता है
तुम इन तूफानों को कैसे झेल पाओगे
क्या अब भी प्रकृति को समझ नहीं पाओगे

मानव ने जो प्रकृति का दोहन किया है
आज उसने भी अपना बदला ले लिया है
जब तक मानव सीमा में रहेगा
तभी प्राकृतिक सुख को आजीवन पा सकेगा |

- सवि

1 टिप्पणी :

  1. आज नदियों के भयंकर उफान देख कर
    मानव क्यों घबराता है
    तुम इन तूफानों को कैसे झेल पाओगे
    क्या अब भी प्रकृति को समझ नहीं पाओगे
    ​अगर प्रकृत्ति का सम्मान नहीं होगा तो वो तो अपना रौद्र रूप दिखलाएगी ही ! बहुत सार्थक शब्द लिखे हैं आपने आदरणीय सवि जी ​

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