हमें भगवान से अधिक, इन्सान से डर लगता है |
कब जीवन में क्या वसूल ले, उसके अहसान से डर लगता है |
कभी पहनाया था हमें ताज,
अब तो उसके दिए मान सम्मान से डर लगता है |
चेहरे पर लगा कर चेहरा वे बांधते है जब सेहरा,
उनकी पहचान से डर लगता है |
बेकारी बेरोजगारी की महामारी से भरे इस जीवन में |
कैसे जुटायेंगे जीने के सामान बड़ा डर लगता है ||
घर बाहर हो रहा है कितना बबाल अब तो,अपने दालान से भी डर लगता है |
जिनकी कथनी और करनी में होता है अंतर |
राजनीती की जो बिछाते है सदा बिसात |
उनकी जहरीली मुस्कान से डर लगता है |
डर डर कर जी रहे है जीवन में हम |
अब तो सार्वजनिक सम्मान से डर लगता है |
सोचा था छू लेंगे ऊँची चोटियों को जीवन में ,
अब तो पहाड़ों की ढलान से डर लगता है ||
ऐसी ही बीती डर-डर कर अंधेरे सायों में,
अब तो उजालों की कायनात से डर लगता है |
चाहों के भावों को समेत लिया अपने तक,
क्योंकि अब कविता करने से भी डर लगता है |
२००७ में प्रकाशित 'सप्तपदी' कविता संग्रह में से
कब जीवन में क्या वसूल ले, उसके अहसान से डर लगता है |
कभी पहनाया था हमें ताज,
अब तो उसके दिए मान सम्मान से डर लगता है |
चेहरे पर लगा कर चेहरा वे बांधते है जब सेहरा,
उनकी पहचान से डर लगता है |
बेकारी बेरोजगारी की महामारी से भरे इस जीवन में |
कैसे जुटायेंगे जीने के सामान बड़ा डर लगता है ||
घर बाहर हो रहा है कितना बबाल अब तो,अपने दालान से भी डर लगता है |
जिनकी कथनी और करनी में होता है अंतर |
राजनीती की जो बिछाते है सदा बिसात |
उनकी जहरीली मुस्कान से डर लगता है |
डर डर कर जी रहे है जीवन में हम |
अब तो सार्वजनिक सम्मान से डर लगता है |
सोचा था छू लेंगे ऊँची चोटियों को जीवन में ,
अब तो पहाड़ों की ढलान से डर लगता है ||
ऐसी ही बीती डर-डर कर अंधेरे सायों में,
अब तो उजालों की कायनात से डर लगता है |
चाहों के भावों को समेत लिया अपने तक,
क्योंकि अब कविता करने से भी डर लगता है |
२००७ में प्रकाशित 'सप्तपदी' कविता संग्रह में से