सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

परचम


तेरे माथे पर आंचल बड़ा खूबसूरत लगता है |
इसे परचम बना लेती तो अच्छा होता |
पिसती रही जीवन भर अपनों के ही बीच |
कभी आवाज उठाती तो अच्छा होता ||

कैसे पार की है तूने वर्जनाओं की बीथियां |
तब आंगन बुहार पाती तो अच्छा होता |
जीवन के झरोखों से देखी है जो बारदातें |
उन्हें भी कभी समझ पाती तो अच्छा होता ||

घरेलु हिंसा का कानून जो अब बनाया है |
सदियों पहले बनवा पाती तो अच्छा होता |
नारी की अस्मिता लुटती रही जार-जार |
तब उन बलात्कारिओं को रोक पाती तो अच्छा होता ||

अच्छा या बुरा झेला तुमने सदियों से |
नारी ही नारी को समझ पाती तो अच्छा होता |
घरेलु हिंसा का कानून बनाने वालो |
जरा हिंसा का अर्थ समझ पाते तो अच्छा होता ||

आज बुलंद की है तुमने अपनी आवाज |
पहले भी बुलंद कर पाती तो अच्छा होता ||
घूँघट में छुपी थी - तुम अब तक |
इसे परचम बना पाती तो अच्छा होता || 




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