तेरे माथे पर आंचल बड़ा खूबसूरत लगता है |
इसे परचम बना लेती तो अच्छा होता |
पिसती रही जीवन भर अपनों के ही बीच |
कभी आवाज उठाती तो अच्छा होता ||
कैसे पार की है तूने वर्जनाओं की बीथियां |
तब आंगन बुहार पाती तो अच्छा होता |
जीवन के झरोखों से देखी है जो बारदातें |
उन्हें भी कभी समझ पाती तो अच्छा होता ||
घरेलु हिंसा का कानून जो अब बनाया है |
सदियों पहले बनवा पाती तो अच्छा होता |
नारी की अस्मिता लुटती रही जार-जार |
तब उन बलात्कारिओं को रोक पाती तो अच्छा होता ||
अच्छा या बुरा झेला तुमने सदियों से |
नारी ही नारी को समझ पाती तो अच्छा होता |
घरेलु हिंसा का कानून बनाने वालो |
जरा हिंसा का अर्थ समझ पाते तो अच्छा होता ||
आज बुलंद की है तुमने अपनी आवाज |
पहले भी बुलंद कर पाती तो अच्छा होता ||
घूँघट में छुपी थी - तुम अब तक |
इसे परचम बना पाती तो अच्छा होता ||
सुंदर अभिव्यक्ति . नारी वेदना से रु-ब-रु कराती रचना .
जवाब देंहटाएंआपका धन्यवाद
जवाब देंहटाएंसुंदर कृति । ये काफी relevant प्रश्न उठाती हैं । साधुवाद स्वीकार करें ।
जवाब देंहटाएं